सृजनात्मकता उस योग्यता को बताती है, जो किसी वस्तु को खोजने या सृजन से सम्बन्धित होती है। शैशवावस्था में शिशु बहुत कल्पनाशील होता है। वो अपनी कल्पना के आधार पर ही नई वस्तुओं का सृजन करता है, जैसे - कागज की नाव बनाना, पंतग बनाना, उड़ने वाला जहाज बनाना, कागज पर तरह-तरह के चित्र बनाना व कल्पना के आधार पर उनमें रंग भरना आदि। शैशवावस्था में सृजनात्मक क्षमता का विकास भली भांति होना आवश्यक है, क्योंकि इसमें हम बालक की कल्पना शक्ति का पूरा प्रयोग करते हैं। इस क्षमता का विकास करके हम उनके भावी जीवन का निर्माण करते है व शिशु के व्यक्तित्व का उचित विकास करते हैं।
बाल्यावस्था में सृजनात्मक विकास
(Development of Creativity in Childhood)
प्रत्येक बच्चे में सृजन की क्षमता जन्मजात होती है, छोटे बच्चों के खेलों में यह सृजनात्मक शक्ति स्पष्ट रूप से झलकती है। रचनात्मक कार्यों द्वारा वह सीखते और आगे बढ़ते हैं। इसके लिए हम बच्चों को कुछ स्वयं करने का अवसर दें, आस पास की वस्तुओं का ज्ञान वो अपनी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त करें और अनुभव करें। बच्चों की कल्पना निरीक्षण व स्मरण शक्ति के विकास द्वारा ही उनकी सृजनात्मक क्षमता विकसित होगी। सृजनात्मक क्षमता के विकास द्वारा ही वो भावी जीवन की तैयारी करेंगे।
बच्चों की सृजनात्मक शक्ति का विकास हम कई प्रकार की क्रियाओं द्वारा कर सकते हैं जैसे खेल, कला, नृत्य, अभिनय और बेकार की वस्तुओं से सामग्री तैयार करना आदि ।
किशोरावस्था में सृजनात्मक शक्ति का विकास (Creative Development in Adolescence )
किशोरावस्था परिवर्तन की अवस्था है। इस अवस्था में उसके अन्दर बहुत सारे शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक व सामाजिक परिवर्तन होते हैं। वह न तो बच्चा रहता है न प्रौढ़। इस कारण से वो अपने को वातावरण से भलीभांति समायोजित नही कर पाते। उसमें कल्पना की अधिकता होती है, वह सृजनात्मक कार्य करके अपनी कल्पना को यथार्थ का रूप देना चाहता है ।
यदि किशोर / किशोरी की सृजनात्मक क्षमता को उचित वातावरण देकर उसका अधिकतम विकास किया जाये, तो वो जीवन में बहुत महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल कर सकता है तथा अपनी शक्ति का सदुपयोग करके अपने को कुण्ठा व निराशा से बचा सकता है।
किशोर / किशोरी में सृजनात्मक शक्ति के विकास के लिए विद्यालय में तरह-तरह की पाठ्यसहगामी क्रियाओं का आयोजन करना चाहिये। जैसे वाद-विवाद प्रतियोगता, साहित्यिक गोष्ठियां, नाटक एवं संगीत, नाटकीय खेल, व्यर्थ सामग्री का उपयोग करके कुछ नई वस्तु की रचना आदि। सृजनात्मक क्षमता का विकास करके ही उन्हें हम कुशल डॉक्टर, इंजीनियर, साहित्यकार, शिक्षक या समाज का मार्गदर्शन करने वाला बनने में सहायता कर सकते हैं ।