यह विकास मानव जीवन को बहुत प्रभावित करता है व उसी से उसके व्यक्तित्व निर्माण में सहायता मिलती है। जब व्यक्ति अपने संवेगो जैसे भय, क्रोध, प्रेम आदि का सही प्रकाशन करना सीख लेता है, तो उसे संवेगात्मक विकास कहते हैं ।
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास (Emotional Development in Infancy)
● शिशुओं का संवेगात्मक विकास धीरे-धीरे अस्पष्टता की ओर होता है।
● विशिष्ट संवेग मन्द गति के स्वाभाव के साथ जुड़ता है।
शारीरिक आयु के साथ-साथ संवेगात्मक विकास में तीव्रता होती है
● शैशवावस्था में मुख्यतया भय, क्रोध व प्रेम आदि तीन ही संवेगों का विकास होता है।
● शिशु थोड़ी-थोड़ी देर में अपने संवेगों को बदलते रहते हैं। वो कभी रोता है, कभी हंसता है और कभी-कभी दोनों का प्रकटीकरण साथ-साथ ही करने लगता है।
● शैशवावस्था के अन्तिम चरण में वातावरण संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने लगता है । बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास (Emotional Development in Childhood )
● इस अवस्था में संवेगों में स्थायित्व आना प्रारम्भ हो जाता है ।
● बालक संवेग व समाज के नियमों में समायोजन करने लगता है ।
● वह प्रत्येक क्रिया के प्रति प्रेम, ईर्ष्या, घृणा व प्रतिस्पर्धा की भावना प्रकट करने लगता है।
● माता-पिता द्वारा बताये कार्य के प्रति वह हां या न कहकर चुप रहता और बाद में अपने को उपेक्षा से बचाता है ।
● इस अवस्था के अन्तिम चरणों में वह संवेगों पर नियन्त्रण करना सीख जाता है ।
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास (Emotional Development in Adolescence)
किशोरावस्था में प्रवेश करने पर किशोर / किशोरी से अनुशासित जीवन व्यतीत करने की आशा की जाती है, पर परिणाम ठीक इसके विपरीत होता है। हम उन्हें न तो बालकों की कोटि में रखते हैं न बड़ों की कोटि में। इस अवस्था में सबसे अधिक संवेगात्मक अस्थिरता पाई जाती है ।
● किशोर / किशोरी में प्रेम, दया, क्रोध, सहानुभूति आदि संवेग स्थायी रूप धारण कर लेते हैं। वह इन पर नियन्त्रण नही रख पाता। अतः सामान्यतः अन्यायी व्यक्ति के प्रति क्रोध व दुखी व्यक्ति के प्रति दया की अभिव्यक्ति करता है ।
● किशोर / किशोरी की शारीरिक शक्ति की उनके संवेगों पर छाप होती है। जैसे सबल व स्वस्थ किशोर में संवेगात्मक स्थिरता व निर्बल व अस्वस्थ किशोर में संवेगात्मक अस्थिरता पाई जाती है
● किशोर / किशोरी अनेको बातों के बारे में चिन्तित रहते हैं। उदाहरणार्थ- अपनी आकृति, स्वास्थ्य, सम्मान, धन प्राप्ति, शैक्षिक प्रगति, सामाजिक सफलता आदि ।
● किशोर न तो बालक समझा जाता है न प्रौढ़ । अतः उसे अपने संवेगात्मक जीवन में वातावरण से अनुकूलन में बहुत कठिनाई होती है। यदि वह अपने प्रयास में असफल रहता है, तो उसे घोर निराशा होती है। ऐसी स्थिति में वो कभी-कभी घर से भाग जाता है या आत्महत्या तक का शिकार हो जाता है ।
● किशोरावस्था में असाधारण रूप से शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं। किशोर और किशोरी दोनों में काम प्रवृत्ति इतनी तीव्र होती है जो कि उसके संवेगात्मक व्यवहार पर बहुत अधिक प्रभाव डालती है।
● किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास इतना विचित्र होता है कि किशोर / किशोरी एक ही परिथिति में विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करते हैं। जो परिस्थिति एक अवसर पर उन्हें उल्लास से भर देती हैं, वही परिस्थिति दूसरे अवसर पर उसे खिन्न कर देती हैं।