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विभिन्न अवस्थाओं में मानसिक विकास

शैशवावस्था में मानसिक विकास (Mental Development in Infancy)

जन्म के समय शिशु का मस्तिष्क पूर्णतया अविकसित होता है और वह अपने वातावरण को नही जानता। जैसे-जैसे उसका मस्तिष्क विकसित होता है, उसे अपने वातावरण के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त होता जाता है ।

जन्म से तीन माह तक शिशु केवल अपने हाथ-पैर हिलाता है। भूख लगने पर रोता है । हिचकी लेना, दूध पीना कष्ट का अनुभव करना, चौंकना । चमकदार चीज को देखकर आकर्षित होना या कभी-कभी हंसना आदि क्रियाएं करता है ।

चौथे से छः मास तक शिशु सब व्यंजनों की ध्वनियां करता है। वस्तुओं को पकड़ने का प्रयास करता है। सुनी हुई आवाज का अनुकरण करता है व अपना नाम समझने लगता है।

सातवें मास से नौवे मास तक वह घुटने के बल चलने और सहारे से खड़ा होने लगता है ।

दसवें माह से 1 वर्ष तक वह बोलने का अनुकरण करता है।

दूसरे वर्ष से शब्द व वाक्य बोलने लगता है ।

तीसरे वर्ष में पूछे जाने पर अपना नाम बताने लगता है । कविता या कहानी भी छोटी-छोटी सुनाता है। अपने शरीर के अंग पहचानने लगता है।

• चौथे वर्ष तक वह 4-5 तक गिनती लिखना व अक्षर लिखना जानने लगता |

पांचवे वर्ष में शिशु हल्की और भारी वस्तु में अन्तर करने लगता है व विभिन्न रंग पहचानने लगता है। वह अपना नाम लिखने लगता है ।

इस प्रकार शैशवावस्था में मानसिक विकास शीघ्रता से होता है। तर्क व निर्णय करने की क्षमता अधिक विकसित नही होती है। जन्म से शिशु की स्मरण शक्ति बहुत कम होती है। ज्ञानेन्द्रियों के विकास के साथ संवेदन क्रिया आरम्भ हो जाती है। इस अवस्था में बच्चे कल्पना जगत में रहते हैं । वे अधिकतर अनुभव, निरीक्षण व अनुकरण द्वारा सीखते हैं। वह छोटी-छोटी समस्याओं का समाधान करने लगता है।

 

बाल्यावस्था में मानसिक विकास (Mental Development in Childhood)

 

बालक की शारीरिक आयु के साथ-साथ मानसिक विकास भी होने लगता है। बच्चे स्कूल

जाने लगते हैं। इसलिए उन्हें मानसिक विकास के अधिक अवसर मिलते है।

इस अवस्था में बालक के समझने, स्मरण करने, विचार करने, स्मरण करने, समस्या समाधान करने, तर्क चिन्तन व निर्णय लेने आदि की क्षमता का विकास समुचित मात्रा में हो जाता है । वह छोटी-छोटी घटनाओं का वर्णन करने लगता है।

 बच्चों में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का संचय करने की क्षमता विकसित होती है व वह रचनात्मक कार्यों में रुचि लेने लगता है। जैसे उसे लकड़ी, कागज व मिट्टी की वस्तुओं को बनाने में आनन्द मिलता है।

बच्चे समूह में रहना व कार्य करना पसन्द करते हं । साथ ही अनुकरण, सहानुभूति व सहयोग आदि की सामान्य प्रवृत्तियों का विकास भी इस अवस्था में हो जाता है

बच्चे पढ़ने, लिखने व सीखने में अधिक रुचि लेते हैं ।

खेल उनकी दिनचर्या का प्रमुख अंग बन जाता है। वह पहेली बुझाने व समस्यात्मक खेलों में रुचि लेने लगते हैं ।

बच्चे पर्यावरण की वास्तविकताओं को समझने लगते हैं और उनमें आत्मविश्वास विकसित हो जाता है।

 

किशोरावस्था में मानसिक विकास (Mental Development in Adolescence)

 

किशोरावस्था में मानसिक विकास अपनी उच्चतम सीमाओं को छू लेता है।

किशोर-किशोरी की स्मरण शक्ति में स्थायित्व आने लगता है। उनकी कल्पना, चिन्तन, तर्क विश्लेषण, संश्लेषण, अमूर्त चिन्तन, समस्या समाधान जैसी उच्च मानसिक शक्तिओं का पूर्ण विकास हो जाता है लेकिन वह उसका उपयोग प्रौढ़ों की तरह करने में समर्थ नहीं होते ।

इस अवस्था में कल्पना की बहुलता होती है, वे कभी कभी दिवा स्वप्न ( Day dreaming ) देखते हैं। किशोरावस्था में शब्द भण्डार अधिक बढ़ जाता है और चिन्तन, तर्क व कल्पना शक्ति के साथ किशोर / किशोरी में वाकपटुता आ जाती है

इस अवस्था में किशोर / किशोरी की रुचियों में भी तीव्र विकास होता है। आकर्षक व्यक्तित्व, वेशभूषा, पढाई लिखाई, पौष्टिक भोजन, भावी रोजगार, कम्प्यूटर, इन्टरनेट, साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रति किशोर / किशोरी की विशेष रुचि होती है।

इस अवस्था में बच्चा बाल्यावस्था से किशोरावस्था की ओर अग्रसित होता है, इसलिए किशोर / किशोरी को नये ढंग से समायोजन करना पड़ता है।