शैशवावस्था में सामाजिक विकास-
शिशु जन्म से सामाजिक नहीं होता। जन्म के बाद अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के प्रति प्रतिक्रिया करता है। इस प्रकार सामाजिक प्रक्रिया प्रथम सम्पर्क में प्रारम्भ होकर जीवनपर्यन्त चलती है।तृतीय वर्ष तक बालक आत्मकेन्द्रित रहता है। वह अपने लिए ही कार्य करता है, अन्य किसी के लिए नहीं । दो या अधिक बालकों के बीच उसमें सामाजिकता का भाव विकसित होता है। इस प्रकार चतुर्थ वर्ष के समाप्त होने तक बालक बर्हिमुखी व्यक्तित्व को धारण करना प्रारम्भ कर देता है। शैशवावस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु का व्यवहार वाहय परिवेश की ओर केन्द्रित हो जाता है। शिशु मित्र बनाना, विचार विनमय करना, अपने साथियों में समायोजन करना सीख जाते हैं ।
बाल्यावस्था में सामाजिक विकास-
• शिशु का संसार परिवार व बालक का संसार परिवार के बाहर संगी-साथी व विद्यालय होता है ।
• बालक एवं बालिकाओं में सामाजिक जागरूकता, चेतना व समाज के प्रति रूझान होता है। वो समूह का सदस्य होने के नाते समाज या समूह के आदर्शों का पालन करते हैं।
• इस आयु के बच्चे बालक बालिकाएं अपने समूह अलग-अलग बनाते हैं। उन्हें खेल अधिक प्रिय होते हैं। वे अपने समूह में नियमों का पालन करते है ।
• इस अवस्था में बच्चे मित्र बनाने लगाते है। वे अधिकतर कक्षा के सहपाठी को ही मित्र बनाते हैं। इस आयु में बच्चे आत्मनिर्भर होने का प्रयास करते हैं। वे घर से बाहर निकलकर अन्य बालकों के साथ समय बिताते हैं, कार्य करते हैं व निर्णय भी लेते हैं। उनमें आत्मसम्मान की मात्रा अधिक होती है।
• बाल्यावस्था में बालकों में प्रवृत्तियों, चारित्रिक गुण व नागरिक गुणों आदि का विकास होता है। वे अपने माता-पिता, अध्यापक आदि के व्यक्तित्व से प्रभावित होते हैं और उनकी विशेषताओं को सीखते हैं।
• इस अवस्था में बच्चे आत्मकेन्द्रित या स्वार्थी नही होतें, बल्कि वे समाज में अपने को समायोजित करते हैं।
• इस अवस्था में बच्चो में नेता बनने की भावना दिखाई देती है व सामाजिक प्रशंसा व स्वीकृति प्राप्त करने की प्रवृत्ति होती है ।
किशोरावस्था में सामाजिक विकास-
• किशोरावस्था मानव जीवन की अनोखी अवस्था होती है। उसके प्रति दूसरों के और दूसरों के प्रति उसके दृष्टिकोण न केवल उसके अनुभवों में, वरन उसके सामाजिक सम्बन्धों में भी परिवर्तन लाने लगते है। इससे उसके सामाजिक विकास पर भी निम्न प्रभाव पड़ता है—-
• इस अवस्था में किशोर / किशोरी में आत्मप्रेम की भावना बहुत अधिक होती है। वे अपनी वेश-भूषा पर विशेष ध्यान देते हैं तथा स्वयं को आकर्षक बनाने में अधिक समय व्यतीत करते हैं ।
• इस अवस्था किशोर / किशोरी में विषम लिंगीय आकर्षण होने लगता है। वे एक दूसरे के साथ समय बिताने के लिए उत्सुक रहते हैं ।
• इस आयु में बच्चे अपने समूह के सक्रिय व प्रतिष्ठित सदस्य बन जाते है आरै वो समूह के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं ।
• इस आयु में बच्चों में आत्म सम्मान की भावना बहुत अधिक होती है और वो अपने को बच्चा न मानकर वयस्क मानते हैं।
• किशोर / किशोरी में संवेगों की तीव्र अभिव्यक्ति होती है। वे अपनी इच्छाओं को समाज के मापदण्ड के खिलाफ भी पूरा करना चाहते हैं। इसलिए उनके समायोजन में अस्थिरता आ जाती है।
• किशोर / किशोरी के अन्दर सामाजिक चेतना की जागृति ही भावी राष्ट्रीय एकता व मानवीय एकता के लिए प्रारम्भिक प्रयास है।